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विकलांग श्रद्धा का दौर

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3027
आईएसबीएन :8126703415

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चुनी हुई रचनाएँ...

Vikang shradha ka daur

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कैफियत

कुछ चुनी हुई रचनाएँ इस संग्रह में हैं। ये 1975 से 1979 तक की अवधि में लिखी गई हैं। 2-4 पहले की भी हो सकती हैं। पिछले सालों में मैंने लघुकथाएँ अधिक लिखी हैं। वे इस संग्रह में हैं।
पिछले 5 सालों में दो घटनाएँ महत्त्वपूर्ण हुईं—1975 से राजनीतिक उथल-पुथल और 1976 में मेरी टाँग का टूटना। राजनीतिक विकलांगता और मेरी शारीरिक विकलांगता। 1974 में ‘संपूर्ण क्रांति’ नाम से गैरकम्युनिस्ट दलों का आंदोलन चला। जून 1975 में आपात्काल लगा। 1976 के अंत में आपात्काल उठा और मार्च 1977 में आम चुनाव हुआ। कांग्रेस हारी। 5 गैरकम्युनिस्ट गुटों के गठबंधन से ‘जनता पार्टी’ बनी और मोरारजी भाई के नेतृत्व में केंद्रीय सरकार बनी। इसे इन लोगों ने ‘दूसरी आजादी’ कहा। जनता सरकार ने पिछली सरकार के कार्यों की जाँच के लिए कमीशन बिठाए। संपूर्ण क्रांति, आपात्काल, जनता पार्टी सरकार, जाँच कमीशन के बारे में मेरे अपने विचार रहे। ये विचार मैंने खुलकर प्रकट किए। बहुत लेखक दूसरे विचार रखते हैं। कौन सही है, कहा नहीं जा सकता।

मैंने इस संदर्भ में लिखी कुछ रचनाएँ इस संग्रह में दी हैं। ‘तीसरी आजादी का जाँच कमीशन’ के अंतर्गत तीन रचनाएँ ऐसी हैं। जाँच कमीशन का काम रोज सघन प्रचार के साथ जिस तरह होता वह हास्यपद हो गया है। इस दौर में चरित्रहीन भी बहुत हुआ। वास्तव में यह दौर राजनीति में मूल्यों की गिरावट का था। इतना झूठ, फरेब, छल पहले कभी नहीं देखा था। दग़ाबाजी  संस्कृति हो गई थी। दोमुँहापन नीति। बहुत बड़े-बड़े व्यक्तित्व बौने हो गए। श्रद्धा सब कहीं से टूट गई। इन सब स्थितियों पर मैंने जहाँ-तहाँ लिखा। इनके संदर्भ भी कई रचनाओं में प्रसंगवश आ गए हैं। आत्म-पवित्रता के दंभ के इस राजनीतिक दौर में देश के सामयिक जीवन में सबकुछ टूट-सा गया। भ्रष्ट राजनीतिक संस्कृति ने अपना असर सब कहीं डाला। किसी का किसी पर विश्वास नहीं रह गया था-न व्यक्ति पर न संस्था पर। कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका का नंगापन प्रकट हो गया। श्रद्धा कहीं नहीं रह गई। यह विकलांग श्रद्धा का भी दौर था। अभी भी सरकार बदलने के बाद स्थितियाँ सुधरी नहीं। गिरावट बढ़ रही है। किसी दल का बहुत अधिक सीटें जीतना और सरकार बना लेना, लोकतंत्र की कोई गारंटी नहीं है। लोकतांत्रिक स्परिट गिरावट पर है।

मेरी टाँग टूटना भी एक व्यक्तिगत आपात्काल था, जो मेरी मानसिकता पर छाया रहा। इस मानसिकता से मैंने एक से अधिक निबंध और कहानियाँ लिखीं। इस दुर्घटना के संदर्भ भी कई जगह आ गए हैं। राजनीतिक और व्यक्तिगत विक्लांगता की प्रतिक्रिया जिस अभिव्यक्ति की प्रेरणा हुई, मैंने उसे पुनरावृत्ति की परवाह किए बिना, प्रकट कर दिया है।
एक लंबी फैंटेसी मैंने धारावाहिक शुरू की है—रिटायर्ड भागवान की कथा। इसकी भूमिका एक अलग निबंध ही है, जो इस संग्रह में दे दिया गया है।

हरिशंकर परसाई

एक मध्यवर्गीय कुत्ता



मेरे मित्र की कार बँगले में घुसी तो उतरते हुए मैंने पूछा, ‘‘इनके यहाँ कुत्ता तो नहीं है ?’’
मित्र ने कहा, ‘‘तुम कुत्ते से बहुत डरते हो !’’
मैंने कहा, ‘‘आदमी की शक्ल में कुत्ते से नहीं डरता। उनसे निपट लेता हूँ। पर सच्चे कुत्ते से बहुत डरता हूँ।’’
कुत्तेवाले घर मुझे अच्छे नहीं लगते। वहाँ जाओ तो मेजबान के पहले कुत्ता भौंककर स्वागत करता है। अपने स्नेही से ‘नमस्ते’ हुई ही नहीं कि कुत्ते ने गाली दे दी—‘क्यों यहाँ आता बे ? तेरे बाप का घर है ? भाग यहाँ से !’
फिर कुत्ते के काटने का डर नहीं लगता—चार बार काट ले। डर लगता है उन चौदह इंजेक्शनों का जो डॉक्टर पेट में घुसेड़ता है। यूँ कुछ आदमी कुत्ते से अधिक जहरीले होते हैं। एक परिचित को कुत्ते ने काट लिया था। मैने कहा, ‘‘इन्हें कुछ नहीं होगा। हालचाल उस कुत्ते के देखो और उसे इंजेक्शन लगाओ।’’

एक नए परिचित ने मुझे घर पर चाय के लिए बुलाया। मैं उनके बँगले पर पहुँचा तो फाटक पर तख्ती टँगी दीखी—‘कुत्ते से सावधान !’ मैं फौरन लौट गया। कुछ दिनों बाद वे मिले तो शिकायत की, ‘‘आप उस दिन चाय पीने नहीं आए।’’
मैंने कहा, ‘‘माफ करें। मैं बँगले तक गया था। वहाँ तख्ती लटकी थी—‘कुत्ते से सावधना।’ मेरा खयाल था, उस बँगले में आदमी रहते हैं। पर नेम-प्लेट कुत्ते की टंगी दीखी।
यूँ कोई-कोई आदमी कुत्ते से बदतर होता है। मार्क ट्वेन ने लिखा है—‘यदि आप भूखे मरते कुत्ते को रोटी खिला दें, तो वह आपको नहीं काटेगा। कुत्ते में और आदमी में यही मूल अंतर है।’

बँगले में हमारे स्नेही थे। हमें वहाँ तीन दिन ठहरना था। मेरे मित्र ने घंटी बजाई तो जाली के अंदर से वही ‘भौं-भौं’ की आवाज आई। मैं दो कदम पीछे हट गया। हमारे मेजबान आए। कुत्ते का डाँटा—‘टाइगर ! टाइगर !’ उनका मतलब था—‘शेर, यो लोग कोई चोर-डाकू नहीं हैं। तू इतना वफादार मत बन।’
कुत्ता जंजीर से बंधा था। उसने देख भी लिया था कि हमें उसके मालिक खुद भीतर ला रहे हैं पर वह भौंके जा रहा था। मैं उससे काफी दूर से लगभग दौड़ता हुआ भीतर गया।
मैं समझा यह उच्चवर्गीय कुत्ता है। लगता ऐसा ही है। मैं उच्चवर्गीय का बड़ा अदब करता हूँ। चाहे वह कुत्ता ही क्यों न हो। उस बँगले में मेरी अजब स्थिति थी। मैं हीनभावना से ग्रस्त था—इसी अहाते में एक उच्चवर्गीय कुत्ता और इसी में मैं ! वह मुझे हिकारत की नजर से देखता।

शाम को हम लोग लॉन में बैठे थे। नौकर कुत्ते को अहाते में घुमा रहा था।
मैंने देखा, फाटक पर आकर दो ‘सड़किया’ आवारा कुत्ते खड़े हो गए। वे सर्वहारा कुत्ते थे। वे इस कुत्ते को बड़े गौर से देखते। फिर यहाँ-वहाँ घूमकर लौट आते और इस कुत्ते को देखते रहते। पर बँगलेवाला उन पर भौंकता था। वे सहम जाते और यहाँ-वहाँ हो जाते। पर फिर आकर इस कुत्ते को देखने लगते।
मेजबान ने कहा, ‘‘यह हमेशा का सिलसिला है। जब भी यह अपना कुत्ता बाहर आता है, वे दोनों कुत्ते इसे देखते रहते हैं।’’
मैंने कहा, ‘‘पर इसे उन पर भौंकना नहीं चाहिए। यह पट्टा और जंजीरवाला है। सुविधाभोगी है। वे कुत्ते भुखमरे और आवारा हैं। इसकी और उनकी बराबरी नहीं है। फिर यह क्यों चुनौती देता है !’’

रात को हम बाहर ही सोए। जंजीर बँधा कुत्ता भी पास ही अपने तखत पर सो रहा था। अब हुआ यह कि आसपास जब भी वे कुत्ते भौंकते, यह कुत्ता भी भौंकता। आखिर यह उनके साथ क्यों भौंकता है ? यह तो उन पर भौंकता है। जब वे मुहल्ले में भौंकते हैं तो यह भी उनकी आवाज में आवाज मिलाने लगता है। जैसे उन्हें आश्वासन देता हो कि मैं यहाँ हूँ, तुम्हारे साथ हूँ।

मुझे इसके वर्ग पर शक होने लगा है। यह उच्चवर्गीय कुत्ता नहीं हैं। मेरे पड़ोस में ही एक साहब के पास दो कुत्ते। उनका रोब ही निराला ! मैंने उन्हें कभी भौंकते नहीं सुना। आसपास कुत्ते भौंकते रहते, पर ध्यान नहीं देते थे। लोग निकलते, पर वे झपटते भी नहीं। कभी मैंने उनकी एक धीमी गुर्राहट ही नहीं सुनी होगी। वे बैठे रहते हैं या घूमते रहते। फाटक खुला होता, तो भी वे बाहर नहीं निकलते थे। बड़े रोबीले, अहंकारी और आत्मसंतुष्ट।

यह कुत्ता उन सर्वहारा कुत्तों पर भौंकता भी है और उनकी आवाज में आवाज भी मिलाता है। कहता है—‘मैं तुममें शामिल हूँ।’ उच्चवर्गीय झूठा रोब और संकट के आभास पर सर्वहारा के साथ भी—यह चरित्र है इस कुत्ते का। यह मध्यवर्गीय कुत्ता है। उच्चवर्गीय होने का ढोंग भी करता है और सर्वहारा के साथ मिलकर भौंकता भी है।

तीसरे दिन रात को हम लौटे तो देखा, कुत्ता त्रस्त पड़ा है। हमारी आहट पर वह भौंका नहीं, थोड़ा-सा मरी आवाज में गुर्राया। आसपास वे आवारा कुत्ते भौंक रहे थे, पर यह उनके साथ भौंका नहीं। थोड़ा गुर्राया और फिर निढाल पड़ गया।
मैंने मेजबान से कहा, ‘‘आज तुम्हारा कुत्ता बहुत शांत है।’’
मेजबान ने बताया, ‘‘आज यह बुरी हालत में है। हुआ यह कि नौकर की गफलत के कारण यह फाटक के बाहर निकल गया। वे दोनों कुत्ते घात में थे ही। दोनों ने इसे घेर लिया। इसे रगेदा। दोनों इस पर चढ़ बैठे। इसे काटा। हालत बहुत खराब हो गई। नौकर इसे बचाकर लाया। तभी से यह सुस्त पड़ा है और घाव सहला रहा है। डॉक्टर श्रीवास्तव से कल इसे इंजेक्शन दिलाऊँगा।’’

मैंने कुत्ते की तरफ देखा। दीन भाव से पड़ा था। मैंने अंदाजा लगाया। हुआ यों होगा—
यह अकड़ से फाटक के बाहर निकला होगा। उन कुत्तों पर भौंका होगा। उन कुत्तों ने कहा होगा—‘अबे, अपना वर्ग नहीं पहचानता। ढोंग रचाता है। ये पट्टा और जंजीर लगाए है। मुफ्त खाता है। लॉन पर टहलता है। हमें ठसक दिखाता है। पर रात को जब किसी आसन्न संकट पर हम भौंकते हैं, तो तू भी हमारे साथ हो जाता है। संकट में हमारे साथ है। मगर यों हम पर भौंकेगा। हममें से है तो निकल बाहर। छोड़ यह पट्टा और जंजीर। छोड़ यह आराम घूर पर पड़ा अन्न खा या चुरा कर रोटी खा। धूल में लोट।’

यह फिर भौंका होगा। इस पर वे कुत्ते झपटे होंगे। यह कहकर—‘अच्छा ढोंगी, दगाबाज, अभी तेरे झूठे वर्ग का अहंकार नष्ट किए देते हैं।’
इसे रगेदा, पटका, काटा और धूल खिलाई।
कुत्ता चुपचाप पड़ा अपने सही वर्ग के बारे में चिंतन कर रहा है।



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